रविवार, 10 जनवरी 2010

आनंद करो !!




मंत्र शक्ति की विशिष्टता को कहते रहते थे।


उनके काम शास्त्री य रहे है । कर्मकांड विषय में शास्त्रमे अटूट श्रध्दा थी । और किसीके जप मंत्र बाकि रहे हो तो रातको जपते रहते थे और पुरे होने के सिवाय निद्रा नहीं लेते थे ! वो कहते थे कर्म में चोरी मत करो । यही उनकी शिख रही है। बोलुन्द्र में अपने वहा शिष्यों को पढ़ते थे। यह उन्होंने वड़ोदरा में भी जरी रख्खा था । वो कहते थे । पढ़ना और पढ़ना यह काम तो ब्रह्मिन का है ही ।







अकिंचित ब्रह्मनात्वं यह उनकी खूबी थी। डोंगरे महाराज के समकालीन एवं प्रन्षक थे । वो कहते थे सरलता एवं सामान्य मानव बनके जीना कठिन है लेकिन सही है। व्यथ प्रसिध्धि से दूर रहते थे। वो कहते थे प्रतिष्ठा सुवर की विष्ठा है !
उन्होंने एक बोर्ड लगाके रख्खा था प्रभु पर श्रध्दा रख्नर कदापि निराश थातो नथी । बस इसी चीज़ पर अड़े रहते थे वो । क्रोध को जितना जरुरी है । और कहते थे चलो मुझे क्रोधित करो मै तुम्हे इनाम दू !! मतलब सतत आनंद में रहना उसे जरुरी मानते थे। और अंतिम उपदेश भी कहा आनंद करो।
जीवन में एक उपदेश ये रहा है की हम मनुष्य है हमें मनुष्य  से आगे बढ़ कर देव योनि में जाना है !! इसीलिए उनके एक भजन में लिखा है --तू देव बन सतत देव की सेवा कर ते करते और अच्छे दैवी गुणों को बढ़ता चल !! यही गुण की दौलत और बढ़ती ही जाएँगी !!



मंत्र में बड़ी श्रध्दा थी किन्तु प्रक्टिकल भी उतने ही थे । उन्होंने एक श्रध्धालु जो उनके पास आया था । उसके आंख में बड़ा कष्ट था तुरंत शस्त्रक्रिया की जरुर थी लेकिन वो बोला मेरी कुंडली में देखो क्या है। उसी टाइम कहा पहले डाक्टर के पास जाओ । ज्योतिष तो शक्यता ओ का विज्ञानं है । अँधा श्रध्दा वालो को डात्ते रहते थे। जप मंत्र से आत्मबल बढ़ता है वो जरुर कहते थे और इसको एक वज्ञानिक दृष्टिकोण से समजते थे। सतत मत्रबल की मोवेमेंट चलते थे।

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